Tuesday, July 28, 2020

लुप्त होती हस्तशिल्प ब्लाॅक प्रिंटिंग की कला को पुर्नजीवित कर रहे हैं ये दंपति


# हैंडलूम और हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस मृतप्राय कला को बचाये रखने के लिये रोहित और आरती की जोड़ी ने "आशा" नामक संस्थान की नींव रखी।
 हाथों से होने वाली ब्लाॅक प्रिटिंग और हथकरघे के काम को पुर्नजीवित करने, अधिक से अधिक कलाकारों का साथ देते हुए उन्हें प्रशिक्षित करते हुए महिलाओं को सशक्त करने का काम करते हुए, रोहित और आरती रूसिया ने मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में "आशा" संस्था की नींव रखी। आज के  आधुनिकीकरण के युग में हैंडलूम ब्लाॅक प्रिंटिंग की समृद्ध और पारंपरिक कला अपनी अंतिम सांस ले रही है और लुप्त होने की कगार पर है. मौजूदा समय में एक तरफ जहां मशीन से बने कपड़े और स्क्रीन प्रिंटिंग लोकप्रियता के चरम पर हैं वहीं दूसरी ओर हाथ से कपड़ा बुनने के भरोसे अपना जीवन यापन करने वालों के पास बेहद कम विकल्प बचे हैं. सैंकड़ों साल पहले मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में रहने वाले चिप्पा समुदाय के करीब 300 परिवार इस हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की कला के विशेषज्ञ थे. आज, कला के इस स्वरूप को केवल एक ही परिवार ने, कई संघर्षों का सामना करते हुए, किसी तरह जिंदा रखा है, जिसका नेतृत्व 70 वर्षीय दुर्गालाल कर रहे हैं. हैंडलूम और हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस मृतप्राय कला को बचाये रखने के लिये रोहित और आरती रूसिया  पति-पत्नी की जोड़ी ने आशा ऐड एंड सर्वाइवल ऑफ हैंडिक्राफ्ट्स आर्टिसन्स नामक संस्था की नींव रखी.
 कला के इस पारंपरिक स्वरूप में, कारीगर लकड़ी के बने खांचे (मोल्ड) का उपयोग कर कपड़े पर डिजाइन को उत्कीर्ण करते हैं. आशा के सह-संस्थापक रोहित रूसिया बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह एक बेहद थकाऊ और समय लेने वाली प्रक्रिया है. रोहित आगे कहते हैं, ‘‘इस कार्य में लाभ तुलनात्मक रूप से काफी कम होता है क्योंकि उत्पादन की लागत कलाकार को मिलने वाले पारिश्रमिक से काफी अधिक होती है.’’ इसके अलावा इस क्षेत्र में कारखानों और कोयला खदानों के चलते कलाकारों और आस पास के शहरी और ग्रामीण परिवारों पर काफी फर्क पड़ा है. एक तरफ जहां बिजली से चलने वाले कारखानों ने बेहद कम दाम पर वैसा ही कपड़ा उपलब्ध करवाया वहीं दूसरी तरफ कोयला खदानों ने स्थानीय निवासियों के लिये रोजगार के नए अवसर प्रदान कियेहैं. लाभ कम होने के कारण युवाओं का भी हथकरघे की इस विरासत से दूर होना स्वाभाविक है. यही वजह है कि यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई. ‘‘हाथ से होने वाली ब्लाॅक प्रिटिंग हमारी पुस्तैनी  विरासत का हिस्सा है, मुझे ऐसा लगा कि मुझे इस परंपरा और संस्कृति को पुर्नजीवित करने के लिये कुछ करने की जरूरत है; अपनी जड़ों के और करीब आने की.’’ हालांकि रोहित के पास फार्मास्यूटिकल में डिग्री है, लेकिन ब्लाॅक प्रिटिंग हमेशा से ही अन्हें अपनी तरफ आकर्षित करती थी. उनकी स्नातक पत्नी, आरती ने उन्हें उनके जुनून के प्रति कुछ करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया और समर्थन भी दिया. आखिरकार 2014 में, रोहित और आरती ने ब्लाॅक प्रिंटिंग, हथकरघा, हस्तशिल्प और कला के अन्य स्वरूपों के संरक्षण और प्रचार के क्षेत्र में कुछ करने और साथ ही साथ नए और अधिक कारीगरों को प्रशिक्षित करने के लिये एक मंच को तैयार करने का फैसला किया. ग्रामीण जनजातीय महिलाओं की आशा काॅटन फैब्स ब्रांड नाम के अंतर्गत बेचे जाने वाली आशा, एक ऐसा स्थान है जहां हाथ से ब्लाॅक प्रिंट किये हुए कपड़ों और डिजाइनों के विनिर्माण और बिक्री का काम होता है. छिंदवाड़ा जिले में स्थित उत्पादन इकाई से लेकर हाथ से बुने हुए कपड़े तक, सभी काम सिर्फ महिलाओं द्वारा ही किये जाते हैं. आशा ने प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश की ग्रामीण जनजातीय महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करवाने का एक सचेत प्रयास किया है. इसके अलावा इस टीम ने महिलाओं को कला के इस स्वरूप में प्रशिक्षित करने और उन्हें घर से ही काम करने के लिये प्रेरित करने के प्रयास किये हैं. रोहित बेहद गर्व से कहते हैं, ‘‘कटाई, सिलाई से लेकर डिजाइनिंग तक का सारा काम गोंड जनजातीय महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है. हमारा मुख्य उद्देश्य अपने कारीगरों और इन महिलाओं को मुख्यधारा में लाना है. महिला सशक्तीकरण हमारे एजेंडे के शीर्ष में है. यहां तक कि इस संगठन की संस्थापक भी एक महिला ही हैं.’’ काॅटन फैब्स द्वारा तैयार किये गए कपड़े और डिजाइन न सिर्फ पूरी तरह से पारंपरिक हैं बल्कि यह स्थानीय स्वाद, कला और संस्कृति के साथ विरासत का एक विशिष्ट मिश्रण भी प्रदान करवाते हैं. 
 भ्रष्टाचार और कलाकारों का बड़े पैमाने पर होने वाला शोषण इस कला और पेशे के पतन के प्रमुख कारण थे. एक तरफ जहां हाथ से कपड़ा बुनने के काम में लगने वाली मेहनत काफी कड़ी होती हैं वहीं दूसरी तरफ इसके बदले मिलने वाला पारिश्रमिक उस मेहनत के मुकाबले बेहद कम होता है. इसके अलावा बिचैलियों की मौजूदगी ने परिस्थितियों को और अधिक कठिन बना दिया था. रोहित बताते हैं कि कोई उत्पाद चाहे तीन रुपये का बिके या फिर पांच रुपये का, कारीगर को मिलता था सिर्फ एक रुपया. ऐसे में, आशा का सूत्र है ‘‘कला-कलाकार-उपभोक्ता’’ और इसी के चलते यह व्यवस्था से बिचैलियों के मकड़जाल को खत्म करने में सफल रही है. काॅटन फैब्स उपभोक्ताओं को सीधे बिक्री करती है जिसके चलते मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा सीधे ग्रामीण कारीगरों के परिवारों के पास जाता है. वर्तमान में आशा 30 परिवारों को रोजगार प्रदान कर रही है. बिक्री को बढ़ाने और वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के उद्देश्य से रोहित ने सोशल मीडिया को विपणन के प्रमुख तरीके के रूप में अपनाया है. इनकी उपस्थिति मध्य और दक्षित भारत में है. इस लुप्तप्राय कला के पुनरुद्धार का चुनौतीपूर्ण रास्ता हालांकि चिप्पा समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अभी भी इस पेशे से दूरी बनाए रखता है लेकिन फिर भी यह संगठन धीरे-धीरे ही सही राज्य में पहचान और सम्मान प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. बिक्री और मांग में कमी के चलते कई युवा हथकरघा और हस्तशिल्प के मुकाबले शहरी नौकरियों को प्राथमिकता दे रहे हैं. चूंकि मध्य प्रदेश राजस्थान की तरह पर्यटन का केंद्र नहीं है इसलिये बिक्री उतनी अधिक नहीं है. स्क्रीन प्रिंटिड कपड़े और बढ़ती माॅल संस्कृति ने पारंपरिक उपभोक्ता आधार को तोड़ लिया है लेकिन इसके बावजूद ब्लाॅक प्रिंटिंग के विशेषज्ञ हाथ से बुने हुए कपड़े और डिजाइनों के मोल को पहचानते हैं और लगातार इस संगठन के संपर्क में रहते हैं. रोहित को इस बात का अहसास हुआ कि शहरों में रहने वाले कई लोग ग्रामीण आजीविका में अपना योगदान देना चाहते हैं और बदले में प्रमाणिक उत्पाद खरीदने को तैयार हैं. प्रदर्शनी और ट्रेड शो अक्सर महानगरों और शहरी उपभोक्ताओं से जुड़ने का एक माध्यम साबित होते हैं. हालांकि इस संबंध में फंडिग यानी पैसे की व्यवस्था एक प्रमुख समस्या है. चूंकि आशा के पास कोई मूल संगठन नहीं है और यह फिलहाल पूरी तरह से संस्थपकों पर निर्भर है, ऐसे में काॅटन फैब्स की कुछ बजट संबंधी सीमाएं हैं. इसके बावजूद रोहित दिल न छोटा करते हुए कहते हैं, ‘अगर 70 वर्ष की आयु में दुर्गालाल इस कला को जीवित देखना चाहते हैं और कोई कलाकार बिना किसी वित्तीय सहायता के इस परंपरा और संस्कृति के पुनरुत्थान को होते हुए देखना चाहता है, तो यह अपने आप में एक बड़ी बात है और यही हमारे लिये आगे बढ़ने की सबसे बड़ी प्रेरणा है।

Tuesday, July 7, 2020

उत्तर प्रदेश : भूमिगत जल हुआ ज़हर - अनिल सिन्दूर



# 63 जनपदों के भूमिगत जल में फ्लोराइड, 25 जनपदों के भूमिगत जल में आर्सेनिक एवं 18 जनपदों के भूमिगत जल में फ्लोराइड –आर्सेनिक दोनों  मानक से अधिक
# वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन उप्र ने आरटीआई के जबाव में जियोग्राफिकल क्वालिटी टेस्टिंग सर्वे से आई रिपोर्ट की दी  जानकारी
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के 63 जनपदों के भूमिगत जल में मानक से अधिक फ्लोराइड, 25 जनपदों के भूमिगत जल में आर्सेनिक तथा 18 जनपदों के भूमिगत जल में फ्लोराइड एवं आर्सेनिक दोनों मानक से कई गुना अधिक है. यह खुलासा एक आरटीआई के जबाव में वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन उप्र से हुआ है. पीने के पानी में मानक से अधिक फ्लोराइड तथा आर्सेनिक आने से गंभीर बीमारी के खतरे बढ़ गये हैं. जियोग्राफिकल क्वालिटी टेस्टिंग सर्वे रिपोर्ट की भयावता  को देखते हुये जिस रिपोर्ट को पोर्टल के माध्यम से सार्वजनिक होना था उसे आज तक नहीं किया गया.

            केंद्र सरकार ने पीने के पानी की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुये वर्ष 2015-16 में 150 करोड़ की धनराशि वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन उप्र को दी जिससे वह उप्र के प्रत्येक गांवों, कस्बों एवं शहरों के पीने के पानी के स्रोतों की जियोग्राफिकल क्वालिटी टेस्टिंग सर्वे करवाये और इस रिपोर्ट को पोर्टल के माध्यम से सार्वजानिक करे. केंद्र सरकार ने यह भी आदेश दिया कि इस रिपोर्ट की एक हार्ड तथा सॉफ्ट  कापी जनपदों के जिला विकास अधिकारी को भी दी जाय जिससे वह भी अपने स्तर पर कारगर उपाय कर सकें. वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन उप्र ने दो एजेन्सियों को इस कार्य को सौंपा जिसमें एक ADCC Infocad Pvt. Ltd. Nagpur थी. एजेंसिओं ने अपनी सर्वे रिपोर्ट की हार्ड कॉपी प्रदेश के सभी जनपदों के मुख्य विकास अधिकारी को दी तथा सॉफ्ट कॉपी वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन उप्र को दी. इस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 63 जनपदों में फ्लोराइड  मानक से अधिक 3 पीपीएम तक है एवं आर्सेनिक 25 जनपदों में मानक से अधिक 1 पीपीएम तक है. जनपदों के विकास अधिकारियों को सर्वे रिपोर्ट का 60 प्रतिशत सत्यापन अपने स्तर पर करवाना था लेकिन अधिकतर जनपदों में यह सर्वे रिपोर्ट आजतक अलमारियों में बन्द है. सर्वे रिपोर्ट को राज्य पेयजल एवं स्वच्छता मिशन को सॉफ्ट कॉपी का उपयोग करते हुये पोर्टल तैयार करना था लेकिन पोर्टल भी तैयार नहीं किया जा सका.

            भारतीय मानक ब्यूरो अनुसार पीने के पानी में फ्लोराइड की वांछनीय मान्य सीमा 1.0 पीपीएम तथा अधिकतम मान्य  सीमा 1.5 पीपीएम तथा आर्सेनिक की मान्य सीमा 0.01 पीपीएम तथा अधिकतम मान्य सीमा 0.05 पीपीएम है. वाटर एण्ड सेनिटेशन मिशन, उप्र ने आरटीआई में जानकारी दी है कि फ्लोराइड से प्रभावित जनपदों अधिक 3 पीपीएम तक है. मानक से अधिक पीने के पानी में फ्लोराइड से घातक रोग फ्लोरोसिस हो जाता है जो दन्त क्षरण, जोड़ों में अकड़न तथा हड्डियों में मुड़ाव ला देता है. इसीतरह पीने के पानी में मानक से अधिकतम आर्सेनिक  1 पीपीएम तक है  आर्सेनिक  त्वचा रोग एवं कैंसर देता है. फ्लोराइड तथा आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों में नागरिकों पर पड़े प्रभावों तथा परिणामों का मूल्यांकन मिशन के स्तर से तो कराया ही नहीं गया स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी इस सर्वे रिपोर्ट पर कोई कार्य नहीं किया. आरटीआई से मिली जानकारी की सूचना रजिस्टर्ड डाक द्वारा प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को भेजी गयी. प्रधानमन्त्री कार्यालय ने इस सूचना को शिकायत मानते हुये मुख्यमंत्री जनसुनवाई पोर्टल पर निस्तारण को प्रेषित कर दी. प्रधानमन्त्री कार्यालय ने सन्दर्भ संख्या PMOPG/D/2019 दिया जबकि मुख्यमंत्री जनसुनवाई पोर्टल पर शिकायत को सन्दर्भ संख्या  6000190107115 दिया गया. प्रधानमन्त्री कार्यालय से भेजी गयी शिकायत को तीन माह बाद बिना समझे, बिना पढ़े ही कानपुर नगर से निस्तारित कर दिया गया. 
    
            नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश की 84 प्रतिशत आबादी को सुरक्षित नलों से घरों तक पानी उपलब्ध नहीं कराया जाता है. पीने का 90 प्रतिशत पानी हेंड पम्प या सबमर्शिबल के माध्यम से जमीन के अन्दर से ही लिया जाता है. अतिदोहन के चलते भूमिगत जलस्तर ख़त्म होने की कगार पर पहुँच गया है जिसके परिणाम स्वरुप पानी में ऐसे तत्व आ रहे हैं जो मानक से अधिक हैं.   
 फ्लोराइड प्रभावित जनपदों की सूची – आगरा, अलीगढ़, अम्बेडकर नगर, अमेठी, औरैया, बागपत, बहराइच, बलरामपुर, बाँदा, बाराबंकी, बिजनौर, बदायूँ , बुलंदशहर, चन्दौली, चित्रकूट, एटा, इटावा, फैज़ाबाद, फर्रुखाबाद, फतेहपुर, फ़िरोज़ाबाद, गौतम बुद्ध नगर, गाज़ियाबाद, गाज़ीपुर, गोंडा, हमीरपुर, हापुड़, हरदोई, जालौन, जौनपुर, झाँसी, ज्योतिबाफुलेनगर, कन्नौज, कानपुर देहात, कानपुर नगर, कासगंज, कौशाम्बी, लखीमपुर खीरी, ललितपुर, लखनऊ, महामायानगर, महाराजगंज, महोबा, मैनपुरी, मथुरा, मेरठ,  मिर्ज़ापुर, मुज़फ्फरनगर, प्रतापगढ़, रायबरेली, रामपुर, सहारनपुर, संभल, संतकबीर नगर, संतरविदास नगर, शाहजहाँपुर, शामली, श्राबस्ती, सीतापुर, सोनभद्र, सुल्तानपुर, उन्नाव तथा  वाराणसी             
आर्सेनिक प्रभावित जनपदों कि सूची – अलीगढ़, आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बाराबंकी, देवरिया, फैज़ाबाद, गाज़ीपुर, गोंडा, गोरखपुर, जौनपुर, झाँसी, ज्योतिबाफुलेनगर, कुशीनगर, लखीमपुर खीरी, लखनऊ, महाराजगंज, मथुरा, मिर्ज़ापुर, पीलीभीत,  संतकबीर नगर, शाहजहाँपुर, सिद्धार्थ नगर, सीतापुर तथा  उन्नाव
आर्सेनिक तथा फ्लोराइड दोनों से प्रभावित जनपदों की सूची- अलीगढ़, बहराइच,  बाराबंकी, फैज़ाबाद, गाज़ीपुर, गोंडा, जौनपुर, झाँसी, ज्योतिबाफुलेनगर, लखीमपुर खीरी, लखनऊ, महाराजगंज, मथुरा, मिर्ज़ापुर,  संतकबीर नगर, शाहजहाँपुर,  सीतापुर तथा  उन्नाव
            जल शक्ति मंत्रालय द्वारा आयोजित नेशनल कॉन्फ्रेंस के दौरान उप्र वाटर एण्ड सेनिटेशन प्रमुख सचिव अनुराग श्रीवास्तव ने बताया कि सर्वे रिपोर्ट को अभी पोर्टल पर नहीं डाला जा सका है जल्द ही टेंडर कर सर्वे रिपोर्ट  पोर्टल पर डाली जायेगी जिससे आम आदमी सर्वे रिपोर्ट को देख सकेगा.


लुप्त होती हस्तशिल्प ब्लाॅक प्रिंटिंग की कला को पुर्नजीवित कर रहे हैं ये दंपति

# हैंडलूम और हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस मृतप्राय कला को बचाये रखने के लिये रोहित और आरती की जोड़ी ने "आशा" नामक सं...