Tuesday, March 31, 2020

समाचार पत्रों पर नोवल कोरोना (कोविड - 19) का असर - अरविन्द त्रिपाठी

नोवल कोरोना का असल संक्रमण और अघात समाचार पत्रों पर पड़ा है. त्योहारी अवसरोंपर चालीस-पचास पेज के छपने वाले समाचार - पत्र अब अपनी असल औकात में आ गये हैं.
प्रत्येक समाचार पत्र के प्रत्येक पृष्ठ में समाचार और विज्ञापन की हिस्सेदारी के लिए भारत सरकार के सूचना प्रसारण विभाग और प्रेस काउंसलिंग ऑफ़ इण्डिया के दिशा-निर्देशों को धता बताते हुये इन समूहों के प्रबंधन ने समाचारों को सदैव दोयम प्राथमिकता बनाये रखा. विज्ञापन अधिक आने/पाने की दशा में पृष्ठ संख्या बढ़ा लेना सभी समाचार पत्रों कि अघोषित नीति रही है.
किसी भी भाषा में प्रकाशित होने वाले कम प्रसार संख्या और कम संसाधन वा
ले अख़बार इन बड़े अख़बार समूहों के आगे नतमस्तक रहते हैं और अपने नियत पृष्ठ प्रकाशन पूर्ण करने लायक संसाधन जुटाने में हाई कमर तोड़ दे रहे हैं. इस पूरे खेल में "पाठक" अर्थात "उपभोक्ता" के हित के बारे में उत्पादक अर्थात समाचार समूह और नियंत्रक अर्थात सरकारों ने कभी नहीं सोचा कि पाठक को किस प्रकार की और  कितनी मात्र में सूचना पहुंचनी चाहिए ? ये  सूचना कितनी सच्ची और कितनी मिलावटी हो ? प्रबंधन की विचारधारा और सूचना के सच का अधिकार आपस में कितना तारतम्य बनाये रखे ? यही सब कारण है कि आम पाठक या असल उपभोक्ता का नकारे जाने का दबाव कभी भी उत्पादक वर्ग अर्थात समाचार समूहों पर नहीं बन पाया. आज छोटे से छोटा और बड़े कहलाने समाचार समूह समाचार पत्र प्रकाशन के साथ या उसकी आड़ में विभिन्न दूसरे पूँजी उत्पादन के कार्य ठेके, दलाली, जाल-बट्टे सहित सरकार बनाने - बिगाड़ने तक के खेल में मस्त हैं. फ़र्ज़ी प्रसार संख्या के आधार पर डीएवीपी दरों में वृद्धी कराकर ऊंची दरों पर सरकारी विज्ञापन हड़पने में ये अधिक सफल हैं.
कोरोना संकट के समय कमज़ोर व्यवसायिक गतिविधियों के कारण कमर्शियल और सरकारी विज्ञापन की कमी के दौर में आज सभी समाचार समूहों की हेकड़ी समाप्ति की ओर है.
समाचार प्रकाशन के मूल व्यवसाय से विमुख होकर या उसकी आड़ में सैकड़ों दूसरे लाभ के व्यवसाय करने वाले और समाचार समूह भी न्यूनतम पृष्ठ संख्या में प्रकाशन कर प् रहे हैं. ऐसे हालात में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बढ़कर इन समाचार समूहों पर नकेल कसनी चाहिये कि कितने पृष्ठ हों और विज्ञापन / समाचार प्रकाशन की वास्विक नीति क्या हो? साथ ही यह भी पाठक को सही समाचार जानने वाला हक़ सर्वोपरि रहे.
पाठकों की मानसिक गुलामी अब बीते ज़माने की बात होने लगी है. पाठकों का समाचार जानने की असल जिज्ञासा की यही दुविधा उन्हें सूचना वैकल्पिक श्रोत अर्थात वेब न्यूज साईट और वाट्सएप पर सूचना पाने के लिए आश्रित रहा है. लेकिन कम अनुभवी और भौकलीय पत्रकार की चाहत ने खबरों की गुणबत्ता पर ध्यान ही नहीं दिया जो कि पाठक के हिट में कतई नहीं है. ऐसे हालात में केंद्र सरकार का हंटर ही कारगर साबित होगा/.


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